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शर्म उनको मगर नहीं आती

तल्हा मन्नान ख़ान

नोटबंदी के फैसले को लागू हुए एक महीने से ज़्यादा का समय हो गया है लेकिन देश के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिवेश में बहस जस की तस बनी हुई है। हर अमीर-गरीब, बच्चा-बूढ़ा, युवक-युवती, स्त्री-पुरुष इस मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है। चाय की दुकान से लेकर विश्वविद्यालयों के परिसर तक नोटबंदी चर्चा का विषय है। लेकिन निम्न और मध्यम वर्ग का आदमी एक बार फिर सरकारी सिंहासनों पर विराजमान नेताओं की ओर निराशा पूर्वक मुँह तक रहा है।



हर बार मैं ही क्यों? सवाल पुराना है, लोग भी पुराने हैं लेकिन सवाल में हर बार की तरह दर्द और बिना फूटा हुआ गुस्सा है। नीयत तो भ्रष्टाचार मुक्त भारत बनाने की थी ना? क़दम तो इसीलिए उठाया था ना ताकि भ्रष्टाचारी दानवों की काली कमाई से भरी तिजोरियाँ ख़ाली कराई जा सकें? लेकिन कहाँ हैं वे भ्रष्टाचारी दानव? एक नई उम्मीद का सपना इस देश की आँखों में पल रहा था कि मेरा देश बदल रहा है। आँख खुली, सपना टूटा और देखा कि देश नहीं बल्कि लोग बदल रहे हैं। मध्यम वर्ग का वह आदमी जो अपनी परिस्थितियाँ बदलने के लिए प्रयासरत था, आज देश की परिस्थितियाँ बदलने के लिए इन्तज़ार कर रहा है। और इन्तज़ार के अलावा वह कर भी क्या सकता है? इन्तज़ार इतना लंबा क्यों होता है? हर बार उम्मीद क्यों टूट कर बिखर जाती है?

नेताओं और पूँजीपतियों के भ्रष्टाचारी दानव रूप से तो जनता पहले से ही वाक़िफ थी लेकिन अब बैंक के अधिकारी भी? नोटबंदी के इस फैसले का ऐलान प्रधानमंत्री जी ने किया था लेकिन इस फैसले को सुचारू और संतुलित रूप से चलाने वाले तो आप थे। और आप भी उसी रंग में रंग गये? सर्दी-गर्मी, जाड़ा-पाला भूल कर न जाने कितने रिक्शा चालक, चाय वाले, विद्यार्थी, महिलाएं और बुजुर्ग दो हजार के एक नोट के लिए लाइन में खड़े रहे और आपने पर्दे के पीछे से किसी की भोग-विलासिता की खातिर अपना ज़मीर बेच कर करोड़ों नोट बदल डाले। एक बार भी नहीं सोचा कि ये नोट किसी के हक़ के थे? इन नोटों पर किसी की घर-गृहस्थी निर्भर है? अफसोस है कि जिनके कन्धों पर देश बदलने की ज़िम्मेदारी डाली गई, उन्हें इस ज़िम्मेदारी का कोई एहसास नहीं है। फिर देश कब और कैसे बदलेगा?

कुछ दिनों पहले की ख़बर है कि ऐक्सिस बैंक काले धन को सफेद करने में लिप्त पाया गया। प्रवर्तन निदेशालय ने दिल्ली के कश्मीरी गेट की ऐक्सिस बैंक की शाखा के मैनेजरों को गिरफ्तार किया जिन पर लगभग चालीस करोड़ रुपये के काले धन को सफेद करने का आरोप है। इसके बाद ऐक्सिस बैंक ने अपने उन्नीस अधिकारियों को निलंबित कर दिया। इसी तरह सीबीआई ने बेंगलुरु की एक बैंक के मैनेजर के खिलाफ मामला दर्ज किया है जिस पर भारतीय रिजर्व बैंक के दिशा निर्देशों का उल्लंघन करते हुए एक बड़ी धनराशि को बदलने का आरोप है और जिसमें एक बड़े कारोबारी का हाथ भी शामिल है।  कुछ दिनों पहले ही अलवर से ख़बर आई थी कि वहाँ भी एक वाहन में नये नोटों की एक बड़ी धनराशि ले जाई जा रही थी। और अभी भी देश की कई बैंकों में ईडी द्वारा मनी लौन्डरिंग के शक के आधार पर छापे डाले जा रहे हैं।

सरकारी आंकड़ों की मानें तो देश में लगभग 14.5 लाख करोड़ रुपये के 1000 और 500 के नोट प्रचलन में थे और अब तक लगभग सत्तानवे प्रतिशत रुपये बैंकों में आ चुके हैं। अगर ये आँकड़े सही हैं तो इसका मतलब यह समझा जाए कि साल के अंत तक सारा काला धन बैंकों में जमा हो गया? या यह कि काला धन देश की आम जनता के पास था ही नहीं !!!

ख़बरें तो यह भी हैं कि इस दौरान डकैती और चोरी की वारदातों में बढ़ोतरी हुई है। मण्डियों में खड़े ट्रकों में लदा हुआ माल सड़ गया लेकिन उतारा नहीं गया। इसका साफ और सीधा मतलब यह है कि इस फैसले का सबसे ज्यादा प्रभाव निम्न वर्ग और मध्यम वर्ग पर पड़ा है। उच्च वर्गीय अधिकारी, कुर्सियों पर आसीन नेता-मंत्री गण ही इन समस्याओं के जन्मदाता हैं क्योंकि वे अपनी सत्ता शक्ति का उपयोग नहीं बल्कि दुरुपयोग करते हैं।

प्रधानमंत्री शायद यह बात भूल गए कि जिन लोगों के कन्धों पर वह भ्रष्टाचार मुक्त भारत की ज़िम्मेदारी डाल रहे हैं, उनके चेहरों के भीतर एक और चेहरा है जो कि एक भ्रष्टाचारी दानव का है। आज वे लोग अपना काला धन सफेद कर के न सिर्फ देश की अर्थव्यवस्था और कानून बल्कि देश के प्रधानमंत्री को भी चुनौती दे रहे हैं कि हम काले धन के संरक्षक हैं और आम आदमी एक बार फिर लाइन में खड़ा है, इस उम्मीद में कि देश बदल रहा है।

तल्हा मन्नान खान अलीगढ़ मुस्लिम विश्विद्यालय में  एजुकेशन ऑनर्स के छात्र हैं. उपरोक्त लेख में लेखक के विचार व्यक्तिगत हैं.